गुरुवार, 13 नवंबर 2008

आगजनी और तोङ फोङ होती

मीडिया और हमारे बुद्धिजीवी जब तक प्रत्येक घटना साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखकर उसाका विश्लेषण करेंगे तब तक कैसे संभव है कि जो लोग वाकइ मैं सामप्रदायिकता फैलाना चाहते हैं इस देश मैं वे सही रास्ते पर लाये जा सकें...किसी घटना को मीडिया मैं तवज्जों कितनी और किस प्रकार की मिलने वाली हैं यह इस बात पर निर्भर करता हैं कि वह किसने कारित की हैं...हिंदू ने या मुसलमान ने यहां करने वाला हिंदु हुआ तो ...तब वह आदमखोर हिंदु ...और यदि मुसलामान या ईसाई हुआ तो वह किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के लोगों ने ....ऐसा बोलकर प्रचारित की जाती है.बुद्धिजीवियों की शब्दावली भी यही होती हैं,जब तक ये होता रहेगा तब तक ये कैसे संभव है कि एक सामान्य व्यक्ति इन सब को तटस्थ मानें..
यदि हम वाकई ये चाहते हैं कि हमारे देश का धर्म निरपेक्षता बची रहै और सभी संप्रदाय के लोग यहां मिलजुल कर खुशी खुशी रहें तो यह सब बंद होना ही चाहियें,क्यों हम किसी आतंकवादी या उग्रवादी घटना के बाद उसे संप्रदाय के आधार पर उसका विचार संप्रदाय के आधार पर करें.क्या हिंदु को दर्द कम होता है या मुसलमान के मरने से उसके घर वाले कम दुःखी होते हैं.
विशेष बात ये है कि ये सब वे लोग कर रहें हैं जो अपने आप को धर्मनिरपेक्षता का झंडा वरदार समझते हैं,हाले के दिनों मैं ऐसे कई सारे उदाहरण सामने आये हैं जिनसे ये बात स्पष्ट होती है...

दो एक साल पहले मूसा खेङा नाम की ऐक जगह है अलवर (राजस्थान) के पास वहां पांछ छ सिख भाईयों की हत्या कर दी गई थी..हत्या भी एकदम तालिबानी तरीके से की गई थी उनमें से प्रत्येक के टुकङे टुकङे कर दियें गये और एक को पैङ पर लटकाकर उसके पहले हाथ पैर काटे गये फिर आंखे निकाल ली गई...इतना ही नहीं बल्कि घर की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया कुल मिलाकर एक हंसता खेलता परिवार बङे ही क्रूर तरीके से मार दिया गया अब उस घर मैं सिर्फ विधवा महिलायें और बच्चे ही बाकी बचे हैं .
इस घटना का पता राजस्थान के ही दूसरे हिस्सों मैं तब लगता हैं जब वहां कि जनता बंद का ऐलान करती हैं और वहां एक दो जगह आगजनी और तोङ फोङ होती हैं ... तो अखबारों ने छापा कि हिंदु अतिवादी संगठनों की दादा गिरी....बाकी इस घटना से न तो किसी मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी का पैट का पानी भी नहीं हिला.किसी अखबार ने संपादकीय तो छोङो ...उन मृतकों के लिए दो लाइने भी खराब नहीं की.....
क्या उनके खून का रंग ग्राहम स्टैंस के खून से सफेद था...क्या मानवता यही कहती हैं...उन महिलाओं की इज्जत उङीसा की नन से ज्यादा सस्ती थी....पर ग्राहम स्टैंस के हत्यारे को फांसी की सजा सुनाई जाती हैं और उन्हें पद्म श्री दी जाती है स्टैंस की पत्नी सरकारी मैहमान बनकर दिल्ली आती हैं..दूसरी ओर उन भाइयों के परिवार वाले आज भी न्याय के लिए दर दर भटक रहे हैं.
क्या बुद्धीजीवी का अर्थ ये तो नहीं कि बुद्धि बेच बाचकर आजीवीका चलाने वाले,.....क्या मानवाधिकार भी हिंदु या मुसलमान के लिए या ईसाई के अलग होता है ...विचार करें...क्या करेंगे ऐसी धर्म निरपेक्षता का...
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