गुरुवार, 13 नवंबर 2008

करीब सात आठ महिने पहिले एक नवयुवति ने अपना मुंह ढके हुए मेरे क्लिनिक मैंप्रवेश किया ऱऔर आते ही रोने लगी.साथ मैं उसकी चाची ने उसे ढाढस बंधाया और मुंहउघाङने को कहा......पूरा चेहरा मवाद और रक्त से भरा हुआ था और सूजा हुआ था.उसकीआंखे ठीक से नहीं खुल पा रही थी...बात करने पर पता चला कि ये समस्या पिछले दो सालसे है पर छ महिने पहिले ही एकाएक बढ कर इस रूप मैं हो गईहै....अब उसका विवाह होने वाला था कुछ दिनों मैं इसलिए वो कुछ ज्यादा ही परेशान हो गई......उसके साथ आई महिला जो कि उसकी चाची थी ने बता या कि वह कुछ दिन पहले एक बार आत्महत्या का विफल प्रयास भीकर चुकी है....कुल मिलाकर स्थिति विकट थी...खैरमैने उसे ढाढस बंधाया और हर संभव सहायता का भरोसा दिलाया. और विश्वास दिलाया कि वह काफी कुछ ठीक होजायेगी...विश्वास होने पर उसका रोना बंद हुआ.......और आगे से ऐसा कुछ नहीं करने की हिदायत दी.......

मैने अपना निदान तब तक सोच लिया था....यह एक्नि वल्गैरिस (मुंहासे) ग्रैड 5 थाऔर तब तक मैं उसे दिया जाने वाला उपचार की रूपरेखा भी मस्तिष्क मैं बना चुकाथा......तब मैंने आइसोट्रिटिनोइन नामक एकऔषधी प्रारंभ करने के वारे मैं विचार किया...पर कुछ कठिनाइयां थी एक तो यह औषधीमंहगी बहुत थी महिने की करीब 1300 -1400 की दवाई और कम से कम चार पांच महिने तकचलने वाली थी और दूसरे दवाई बंद करने के बाद करीब डेढ साल तक वह गर्भ धारण नहीं करसकती थी ...क्यों कि होने वाले बच्चे मैं गंभीरपरिणाम हो सकते हैं.....

जल्द ही दोनों समस्याओं का समाधान हो गया क्यों कि गर्भ धारण करने की बात वो मान गइ और दवाईयां मैंने उसकी आर्थिक स्थिति देखकर उससे वादा किया कि मैं किसी भी तरह जितना हो सकेगा अपने पास् से दूंगा कम से कम एक तिहाई .........

खैर उपचार प्रारंभ हुआ वो हर पंद्रह दिन मैं आती थी दवाई लेने ....प्रारंभ मै औषधियों का असर थोङा कम होता हैं ...इसलिए वो बार बार हिम्मत हार जाती पर मैने उसे मानसिक और दवाइयों से दोनों तरह से पूरा सहयोग दिया और उसकी हिम्मत बनाए रखी .पर एक बात मुझे खटकती ती वो ये कि वो मुफ्त की दवाइयां तो मेरे से लेती थी पर बाकि दवाइयां मेरे क्लिनिक पर स्थित मैडीकल स्टोर की जगह अपने किसी रिश्तेदार की दुकान से लेती थी........वैसे कभी भी मैं इस चीज का ध्यान कभी नहीं रखता कि कौन यहां से दवाइ लेता है कौन नहीं ....पर चूंकि मैं इस रोगी की इतनी सहायता कर रहा था इस लिए शायद मुझे ये अटपटा लगा......

धीरे धीरे वो ठीक होने लगी ...मैं स्वयं परिणाम से संतुष्ट था और वो भी प्रसन्न थी....करीब पांच महिने बाद एक दिन बङे ही प्रसन्न मुख से उसने मेरे क्लिनिक मैं प्रवेश किया और बोली ..सर दो दिन बाद मेरी शादी है .....आज उसका चेहरा दमक रहा था ,चेहरे के निशान काफी कुछ साफ हो चले थे और बहुत सुंदर दिख रही थी आज...........मैं स्वयं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि यह वही लङकी है जो उस दिन पहचान मैं नहीं आ रही थी और जिसका रो रोकर बुरा हाल था.मैंने उसे अंतिम पंद्रह दिन की दवाइयां लिखकर महिने दो महिने मैं वापिस दिखाने को कहकर उसे विदा किया...जाते जाते उसने पलटकर धन्यवाद दिया और दरवाजे के बाहर निकल गई.

ठीक दस मिनिट बाद हरीराम जो कि मेरी फार्मेसी संभालता है ,घबराया हुआ अंदर आया ...सर जो लङकी आईसोट्रिटिनइन लेती है वो दवाई दिखाने आई थी क्या...मैने कहा नहीं वो को वैसे भी अपने यहां से दवाई नहीं लेती है....क्या हुआ......दिखाने के बाद दवाई लेकर तो नहीं आई.....

साब उसने कभी यहां से दवाई नहीं खरीदी.....आज पंद्रह दिन की जगह उसने दो महिने की दवाई ली और आपको दिखाने का नाम लेकर अंदर आई थी....पर वापिस नहीं दिखी........

जिस लङकी को पिछले छै महीने से कि उसके अंधकार मय जीवन मैं एक तरह उजाला हो इसलिए पूरा मन लगाकर मेरे से जितनी संभव है उतनी सहायता की .....वो पूरे ढाई हजार की दवाईयां लेकर गायव हो चुकी थी

3 टिप्‍पणियां:

shama ने कहा…

Padhke lagaa kya likhun ? Mere apne saath aisa kayee baar ghata hai...mai khoob bewaqoof banayee gayee hun...par mudke dekhtee hun to lagta hai, nahee ye jeevan shiksha hai ! Apne anubhav se seekh milee...par phirbhee jahan ho saka wahan madat zaroo kee...jab mere manme khot nahee to mai bewaqoofbhee nahee...bewaqoof to wo hain, jinhone galat kiya...!

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

narayan narayan

Amit K Sagar ने कहा…

ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. खूब लिखें, खूब पढ़ें, स्वच्छ समाज का रूप धरें, बुराई को मिटायें, अच्छाई जगत को सिखाएं...खूब लिखें-लिखायें...
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अमित के. सागर
(उल्टा तीर)